इतना कुछ बदल गया है हमारे चारो ओर कि
अब तो हमने
सभ्य होने का ढोंग रचाना भी छोड़ दिया है।
अपने सारे मुखौटे उतारकर ,
हम प्रायः हंसते हैं एक निर्लज्ज हंसी
अपनी समस्त विद्रूपताओं के साथ,
हमें अब किसी बात का भय नहीं होता ,
अलग -थलग पड़ने का डर नहीं होता,
क्योंकि शायद अब यही व्यवहार
सहज स्वीकार्य है ,मान्य है,सराहनीय है।