सभ्य होने का ढोंग- Anil Singh

इतना कुछ बदल गया है  हमारे चारो ओर कि

अब तो हमने

सभ्य होने का ढोंग रचाना भी छोड़ दिया है।

अपने सारे मुखौटे उतारकर ,

हम प्रायः हंसते हैं एक निर्लज्ज हंसी

अपनी समस्त विद्रूपताओं के साथ,

हमें अब किसी बात का भय नहीं होता ,

अलग -थलग पड़ने का डर नहीं होता,

क्योंकि शायद अब यही व्यवहार

सहज स्वीकार्य है ,मान्य है,सराहनीय है।