मोटी किताब छोटे पन्ने- Arsh Gupta

मैं मेरी किताब वो अपनी किताब बेताब हो पढ़ रहे थे |

मेरी थोड़ी ज़्यादा मोटी थी उसकी थोड़ी लंबी थी|

मुझे उससे पहले ख़तम करनी थी|

मै पन्ने गिन रहा था| एक पन्ने से दूसरे पन्ने का मेरा सफ़र काफ़ी छोटा था |

शायद उसका पन्ना शब्दो से भरा था, मेरे थोड़े खाली थे, मेरे पन्ने छोटे थे और उसके लंबे |

वो हर लाइन जी रहा था और मै पन्ने पी रहा था |

मुझे हर पन्ने मे बेचैनी थी| मुझे पन्ने नही किताब पढ़नी थी | उसने जान लिया था हर पन्ना ही किताब है |

मैने किताब ख़त्म करने की जल्दी मे पन्ने फाड़ दिए, वो हर पन्ने में रोज़ किताब ख़त्म कर रहा था |

मुझे हर ख़त्म होता पन्ना सुकून ज़रूर देता था पर हर पन्ना खाली लगने लगा था |

उसके लिए हर पन्ना नया था | मैं खुदको पढ़ने नही दे रहा था | और वो किताब बनता जा रहा था |

मुझे लगा शायद मेरी किताब ही खराब है,

पूछा तो पाया वो भी वही किताब पढ़ रहा था, बस मुझे मोटी और उसे लंबी लग रही थी |