खुद की पहचान | Ganesh Sahu

नजर में थी बहुत से खुशियों की ख्वाहिशें,

पर गला घोंटकर उनका, दूसरों के सपने पूरे करता रहा।

पता नहीं दूसरों के सपने पूरे करते-करते, मैं खुद को कब भूल गया।।

आईने में खुद को पहचान नहीं पा रहा था,

सब धुंधला सा दिख रहा था।

पता नहीं कब दूसरों को देखते-देखते, मैं खुद को कब भूल गया।।

अपने कर्तव्य को लेकर मैं, दूसरों के लिए जीता रहा,

दूसरों की जिम्मेदारियों को निभाता रहा।

पता नहीं दूसरों की जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते, मैं खुद को कब भूल गया।।

जीवन में दौड़ा जा रहा था, अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए,

और दूसरों को सफलता तक पहुँचाता रहा।

पता नहीं दूसरों को सफलता तक पहुँचाते-पहुँचाते, मैं खुद को कब भूल गया।।

सबको खुश करने में खुद को कुर्बान कर दिया,

दूसरों के लिए अपने वादे तक को न्योछावर कर दिया।

पता नहीं कब दूसरों के वादों को पूरा करते-करते, मैं खुद को कब भूल गया।।

अपने लिए वक्त कम था पर, हर सुख-दुख में सबका साथ निभाता रहा।

पता नहीं दूसरों के लिए वक़्त निकालते-निकालते, मैं खुद को कब भूल गया।।

अब समय है वापस लौटकर, खुद को खोजने का,

अधूरे सपने पूरे कर, स्वयं की पहचान बनाने का।

अपने और मात्र अपनी खुशी के लिए जीने का।