बंधन दो इनकार नहीं है | girish chandra agarwal

भटकी नौका खोया माझी मन मचला पतवार नहीं है।

चलो निमंत्रण आज दे रहा बंधन दो इनकार नहीं है।।

पड़ी फुआरें गरजे बादल दिल ने तुमको याद किया था।

नई नवेली दुल्हन सी निसि की छवि ने उनमत्त किया था।।

कसक उठी लखि इंदु प्रियतमा नैनों ने भी ज्वार उठाया।

खोजा तुमको ढूंढ न पाया गाया मैंने राग विरह का।।

पथ भी बीहड़ लंबी राहें मुझको तेरा पता नहीं है।

चलो निमंत्रण आज दे रहा बंधन दो इनकार नही है।।

शीतल उनमत्त पवन चलता अंबर मे भी तारे खिलते।

अंबर में खोये मधु प्रेमी मधु पीने को आतुर रहते।।

चकवी तरसी चकवा रोया अब रात दे रही उनको बंधन।

निशि की उनमत्त पवन मलयज देती है उसको आज तपन।।

आ रही भावना दिल में है कविता लिखता पर साज नहीं है।

चलो निमंत्रण आज दे रहा बंधन दो इनकार नहीं है।।