बचपन की है यह बात पुछा मां से मैंने एक सवाल,
कब होगी मेरी शादी कब आएगी मेरी बारात,फिर
नम आंखों से मां बोली , तेरी शादी नहीं हो सकती,
कयीं बार वजह मैंने पुछी तो जवाब में ख़ामोशी ही मिली,
शादी में कभी वो मुझे लेकर नहीं गयी, रोती ज़ोर ज़ोर से
मिन्नतें अनगिनत करती , लेकिन मां उस वक्त पत्थर
जैसी हो जाती देखो , जैसे कुछ सुना ही नहीं
मंदिर भी लेकर जाती,तो बाहर ही बिठा देती मुझे,
क्यों हो रहा ऐसा कुछ समझ नहीं आता , ऐसे ही बीत
गये कयीं साल , एक दिन मां की सिंदुर दानी लेकर मैंने,
थोड़े से सिंदुर से भर ली अपनी मांग, पहनकर लाल साड़ी,
सुहागन बनकर घर में घुमती रही, देखकर मुझे मां की
आक्रोश भरी नज़रों से भयभीत मैं हो गई, लेकर हाथों में पानी के छीटे मिटा दिया मेरा सिंदुर, रुष्ठ होकर चली,
गई घर से मैं कोसों दूर सदा के लिए ,
पहना फिर से लाल जोड़ा और कर ली मैंने,
खुद से शादी, चाहे मिटा दिया सिंदुर मेरा नहीं मिटा पाएंगी ,
वो इच्छाएं महत्वकांक्षाएं, और सपने जो मिरा चित और दिल है देखता ,क्यों नहीं हो सकती मेरी किसी और से,
शादी ,आत्मा का हर कतरा सवाल यही पुछता सवाल यही,
पुछता लेकिन अफसोस का कोहरा ऐसा छाया नहीं मिलता
इस सवाल का जवाब कोई, इस उलझन से
झुंझते इतनी थक गई, होकर मुर्छित धरती पर, हमेशा
के लिए गहरी नींद में सोई, आखिरकार सपनों में
तो वो आया, जिसने मुझे शादी के लिए मनाया।