आषाढ़ की भीगी रात,
काले बादल ठहरे है
अब, अँधेरे में
घाट की सीढ़ियों पर
खड़ा हु मै,
कुछ खास खोया नहीं है
अभी तक...
एक आईना बिछा है
पानी में, मेरे सामने
बहती लहरों से
उलझ रही है
तस्वीरें आईने की;
सूरज सोया है,
पहरे पर खड़ा
सब देख रहा है चाँद -
कही चित् चिताओ की
लपटों को उड़ते,
बहते पानी में विसर्जित
अस्थियो को उठते,
कही हवा में छिपकर
मैली अफवाहों को
किसी शहर-गाँव मचलते,
कहीं खोयी दिशाओ में
यौवन को ढलते,
किसी भीड़ में चलते
पैरो की आहट से
धड़कन की रफ़्तार बदलते,
कही बाढ़ में घर-मचान उजड़ते,
किसी रददी में
भीगे अखबार के पन्नों
पर पुराने वादों की
स्याह को धुलते |
ऐसे कई नज़ारो को घटते,
जैसे काली बदली के
जगह-अंजाम बदलते
और
(चारे में मछलियों सा)
फसते एक एक कर
आँखों में मेरी तुम्हारी।