जीवन में परिवर्तन | Nikita Gupta

विवाह के पश्चात मेरा जीवन पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाता है, पैर मै छूती हूँ और आशीर्वाद उसकी लंबी उम्र का मिल जाता है।

ये शरीर मेरा होकर भी मेरा नहीं रहता, इसका एक-एक अंग उसके नाम का हो जाता है। जिसे नौ मास तक गर्भ में रख अपने रक्त से सींचती जन्म के पश्चात वो भी उसकी संतान कहलाता है।।

हथेली मेरी और मेहंदी उसके नाम की लग जाती है, ये मांग भी उसके नाम के सिंदूर से भर जाती है।

जहाँ जन्म लिया, जहाँ पली-बढ़ी, जिस आंगन में बचपन गुजरा,वो सब कहीं पीछे छूट जाता है; विवाह के पश्चात मेरा जीवन पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाता है।

कहने को तो विवाह दो मनुष्यो का होता है पर वास्तव में देखें, तो उनमें से केवल एक ही है जो अपना सब कुछ खोता है।

मेरी आदतें, मेरा रहन-सहन, मेरा पहनावा, सब कुछ बदल जाता है; और तो और मेरे नाम की जगह अब उसका नाम लिया जाता है।।

मेरी इच्छाएं, महत्वकांक्षाएं,ये सब कुछ किसी ताले में बंद हो जाती है, जिसकी सुबह दस बजे होती थी, आजकल वो सूरज से पहले उठ जाती है।

किसी की बेटी नहीं, किसी की पत्नी तो किसी की बहु कहलाती हूँ; सबकी जरूरतो, सबकी इच्छाओं का ख्याल रखने में वैस्त मैं स्वयं को कहीं भूल सी जाती हूँ।

घर-बार, रिश्ते-नाते, नाम-पहचान सब कुछ बदल जाता है, जो जन्म से अपना था वो पराया और कोई अजनबी अपना बन जाता है।

कलाईयों में चूड़ियां आ जाती है, सर पे पल्लू डल जाती है, कहा गुजर जाता था दिन यारों के बीच, आज तो रसोई में ही शाम ढल जाती है।

जन्म देनेवाली माँ, लाड़ करने वाले पापा, इन सब को छोड़ आती हूँ; उसके माँ-बाप को अपनाती हूँ फिर भी पराये घर की कहलाती हूँ।

एक मंगलसूत्र और सिंदूर से सब कुछ कितना बदल जाता है; मेरे नाम से नहीं, अब मुझे उसके नाम से पुकारा जाता है।

कभी-कभी दिल करता सब से यह सवाल करू, हर बार बलिदान की अग्नि में मैं ही क्यों जलू?

क्यों जाना पड़ता हैं मुझे छोड़ अपना सब कुछ, मैं क्या चाहती हूँ ऐ दुनिया! कभी मुझसे भी तो पूछ।

सदियों पहले किसी के द्वारा बनाई गई एक प्रथा पर लोग चुंबक की भांति चिपक चुकें हैं; मैं भी एक इंसान हूँ, शायद ये सब भूल चुकें हैं।

कितना अजीब है न दुनिया का ये दस्तूर, ना चाहते हुए भी मुझे कर देते हैं अपनों से दूर।

हाथ में चूड़ी, गले में मंगलसूत्र, सर पे पल्लू और मांग में सिंदूर, ये सब मेरे शरीर का एक हिस्सा बन जाती है; एक गलती पर मेरी सारी अच्छाई भुला दी जाती है।

शरम-लिहाज का ठेकेदार बना दिया जाता है; मेरा रंग उतार मुझे किसी और के रंग में डाल दिया जाता है।

किसी को नहीं खबर कि देखे थे मैंने भी कुछ सपने, मेरी दुनिया सीमित हो जाती है बस बाल-बच्चे और घर में।

क्या जीवन है मेरा, जन्म लिया एक आंगन मे, मरन हुआ दूसरे में; पर इन दोनों के बीच, क्या सफर था! कहीं तो अफसोस होता है ये कहने में।

किसी को रुचि नहीं ये जानने में, मैं क्या चाहती हूँ वो मानने में, सब चाहते हैं जल्दी से डाल दूँ मैं एक लल्ला पालने में।

जिन बहनों से लड़ते-झगड़ते, मस्ती करते, सारा दिन गुजर जाता; आज उनसे ही बात करने को समय नहीं मिल पाता।

उम्मीद है, आज नहीं तो कल ये प्रथा जरूर टूटेगी; फिर ये सारी दुनिया उठ मेरी भी कामना पूछेगी।

ऐ समाज! मुझे परिवर्तित कर तुम्हें क्या मिलता है? विवाह के पश्चात मेरा ही जीवन पूर्ण रूप से क्यों बदलता है?

जी चाहता कभी उससे कहू, कि तुम ये करना अपना सब कुछ छोड़ तुम मेरे साथ चलना, ये सोचने मात्र से ही तुम्हारा कलेजा ना कांप जाए तो फिर तुम कहना।

कब आएगी दोनों में समानता, क्यों जाना पड़ता है मुझे छोड़ अपने माता पिता।

घर-बार सब कुछ बदल जाता है, जनम एक आंगन में तो मरन दूसरे में हो जाता है।

कल जो केश हवाओं से बात करते, आज वही एक-दूसरे में उलझे कंधों पर पड़े रहते; कल जिसे श्रींगार था सबसे प्यारा, आज ना-जाने कहीं तो गुम हो गया है वही बेचारा।

मेरे खिलौने, मेरी किताबें, एक वक्त था जब ये सब मेरे जीवन का हिस्सा हुआ करती; आज तो ये एक कोने में पड़ी मेरा किस्सा कहा करती।

कई सारे नए रिश्ते मिल जाते हैं, पर जो जन्म से थे वो कहीं पीछे रह जाते हैं; मेरे गर्भ से जन्म लेने वाले भी सर्वप्रथम उसके कहलाते हैं।

कल जिस चाट के ठेले को देख, मैं खुद को कभी नहीं रोकती; आज उसे ही देख दस बार हूँ सोचती।

जीवन के एक पड़ाव पर आकर मेरा दो घर हो जाता, एक मायका तो दूसरा ससुराल है कहलाता। पर दोनों में ही मुझे वो स्थान नहीं मिल पाता, एक में पराया धन तो दूसरे मे पराये घर की कह दिया जाता।

जिस घर को अपना माना उसे छोड़ जाना पड़ता है, आज उसी घर में एक रात ठहरने को उससे पूछना पड़ता है।

रिश्तों की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं, मायके में तो केवल मेरी कुछ यादें और तस्वीरें ही रह जाती है।

ऐसा नहीं है की नए रिश्तों के मिलने की खुशी नहीं होती है, पर पुराने रिश्तों की कमी कहीं तो खलती है।

विवाह के बाद मेरा ही जीवन सबसे अधिक क्यों बदलता है? मेरे जीवन के प्रत्येक दिन का सूरज उन चार दिवारियों मे ही क्यों ढलता हैं?

क्या मुझे मेरे सवालों का जवाब कभी मिल पाएगा? क्या ये प्रथा कभी बदल पाएगा?

मेरा हृदय तो केवल इतना ही पूछता है, विवाह के पश्चात मेरा ही जीवन पूर्ण रुप से क्यों बदलता हैं?