जागा सूरज हुई सुबह नई, लौटा चंदा था कुम्हलाया; गुमसुम, खोया, उदास जरा,
जाने यूं कबतक अलग- थलग, अनछुई रहेगी मेरी दक्षिणी धरा ।
चंदा था फिर मायूस बड़ा, चंदा था फिर मायूस बड़ा ॥
युग बीत गए, सदियाँ बीतीं, यहाँ वीरानी का ही साया है,
जाने मेरी दक्षिण धरा से मिलने, अबतक कोई क्यूँ न आया है,
जाने मेरी दक्षिण धरा से मिलने, अबतक कोई क्यूँ न आया है।
माना कि है दक्षिण दूर जरा, अँधियारे से भी घिरी यह धरा,
पर मुझसे भी मिलने आए कोई, सदियों से मन में यह आस है,
ढूँढे मुझमें क्या राज़ भरा, देखे मुझमें भी क्या खास है !
चंदा के दक्षिण ध्रुव के मन में, युगों –युगों से यह आस है,
है पास मेरे भी ऐ मानव, तेरे लिए कुछ खास है,
वैसे भी बहन पृथ्वी मेरी, तुम-सब के ही तो पास है।
यही सोच- सोच मायूस चंदा, आगोश में नींद की समाया है,
जाने मेरी दक्षिण धरा से मिलने, अबतक कोई क्यूँ न आया है,
जाने मेरी दक्षिण धरा से मिलने, अबतक कोई क्यूँ न आया है।
संध्या घिरने का हुआ समय, लौटूँ नभ में, चमकूँ फिर से, यह सोच चाँद ने ली अंगड़ाई,
तभी दक्षिण धरा पे हुई हलचल, किसी के आगमन की शुभ खबर आई ।
खुश था चंदा, वह झूमा भी, विस्मित भी था, कुछ ठिठका सा, कुछ शरमाया,
जब दक्षिण ध्रुव पर चंदा के, एक छोटा यान था टकराया।
आगंतुक यान था चतुर बड़ा, बेखौफ़ भी था, सीधा था खड़ा, फिर कदम चार चल दिखलाया, ध्वज भारत का था साथ लिए, भारत से मैत्री संग लाया।
चंदा ने भी तब इठला कर, मैत्री का हाथ बढ़ाया था। मुस्कान लिए बोला चंदा - देवों की भूमि से तू आया दूत, मेरी दक्षिण धरा हुई अभिभूत।
धन्य हुई मेरी धरा अंधियारी, मिटी वीरानी, बढ़ी मेरी शान।
युगों – युगों तक जग जाने यह, क्या दे सकते हो कुछ ऐसा प्रमाण ?
चतुर यान, था नाम प्रज्ञान, फिर चला बड़े आराम से,
इसरो व अशोक-स्तम्भ के, चिन्ह बनाता शान से,
सत्यमेव जयते तब हुआ अंकित, चन्द्र-धरा पर बड़े मान से ॥
जय हिन्द ॥