अर्जुन! तू बड़ा बलवान है, तुझपे न्यौछावर धीर,
नाम तेरा किस काम का, जो तू न चलाए तीर।
अवगुण भेदी बाणों से, भरा पड़ा है तुणीर,
आत्मा अजर-अमर रहे, नित बदले नए कुटीर।
माटी-सा है रूप तेरा, फिर चाहे तू धड़ को चीर,
मोल तेरा अनमोल है, है दुविधा विकट गम्भीर।
जन्म-मरण का चक्कर चले, क्यों है मनु पुत्र अधीर,
ऋतु चक्र-सा जीवन ऐसा; ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर।
माटी सही कुम्हार की, घड़े में भरयो नीर,
खोदा कुआं जाइके, प्यास बुझी ना फिर।
लोक सही, परलोक सही; घट-घट में रघुवीर,
माला फेरत जग मुआ, ना प्रगट भयो तस्वीर।
जिसको तू है ढूंढता, वो तुझमें ही है वीर,
दर्श बड़ा कठोर है, चूंकि साफ नहीं तस्वीर।
किस बात का अभिमान है, क्यूं छम-छम बहता नीर,
मानो तो सिया-राम है, न मानो तो टेढ़ी है खीर।
मख़मली बिछौना होय, जो बना अनंत अमीर,
नींद सुखी न बन भई, धन ढ़ेर लगत अम्बिर।
माली सींचत बाग को, भर-भर देवत नीर,
मौज लीन भँवरा सुखी, कर्म करे शमशीर।
है बहुत बड़ी विडम्बना, सोने-सा होगा शरीर,
छोटा-सा ये जीवन है, ज्यूं बीते बने तकदीर।
लंका जली, रावण मरा; मर-मर गए लख वीर,
जो करत है, सो भरे; नित तकड़ी तोले पनीर।
किसकी करता नौकरी, कौन तेरा मुखबीर,
सारा जग इक मंच है, मैं काठी का मीर।
बड़ा विचित्र ये जाल है, ज्यूं होगा ये लीरो-लीर,
बात बड़ी ये काम की, कहे संत पीरों के पीर।
आनंद का जो नाम है, उठ-उठ जाए खमीर,
रोटी बड़ी कमाल की, खात रहे रघुवीर।
माया का ये जाल है, जो दर-दर भटके फकीर,
रब्बी, सांईं, महावीर हो; या नानक, मसीह, कबीर।
मैं दास तेरे दरबार का, तू ही है माया बेपीर,
स्वामी तेरो दर्शन दुर्लभ, ढूंढत फिरत है जग मीर।
गर जो मिलता पानी में तू, मिलता मण्डूक-मच्छीर,
हृदय में है डेरा तेरा, कहे बुल्लेशाह फ़कीर।
पंच भूत की देह बनी; भू, नभ, जल, अग्न, समीर,
तृष्णा लेकिन बनी रही, सब काया जली आखिर।
किया कर्म यह सोच के, हाथ लगे अंजीर,
खाली-खाली सब गए; अकबर, सिकंदर, जहांगीर।
तिनका-तिनका जोड़ी के, जो बनाया तूने कुटीर,
न कोई रिश्ता, न कोई नाता, न ही है कोई वीर।
तू था अकेला, है अकेला, तू ही रहेगा आखिर,
झुंड तेरा है बहुत बड़ा, काम चार आयेंगे बस धीर।
ईंट-ईंट से मकान बना, बनते गए मंदिर,
आँख मूंद के मैं खड़ा, ध्यान मगर बाहिर।
किया खरा है या बुरा, नित कहत रहे ज़मीर,
बाहिर के कान ढ़को, सुन हो अन्तर्मुखीर।
जाग रहा कि सो रहा, खींची हुई है लकीर,
बंधन-मुक्त खुद जब हुआ, तोड़ के हर जंज़ीर।
सागर तैरन वो चला, साथ नहीं कोई हीर,
राम बढ़ावे सो बढ़े, चापु बनत तकदीर।
मेरा-मेरा क्यों करत है, कुछ नहीं तेरी ज़ागीर,
खोटा कर्म क्यों है खटता, बनके तू बलवीर।
दूर खड़ी इक बाँवरी, देवत सलाह मशीर,
जब अंत घड़ी हो निकट खड़ी, स्थिति रहे गंभीर।
समय तेरा बहता चला, क्या करेगा फिर,
नाम प्रभु का सुमिरि ले अब, कल ना आवत कभीर।
सुनले बात ये साधु की, हो जा मूक-बधीर,
मौन रहे, सुखी रहो; कह गए दास कबीर।