रास्ते भी एक थे दोनों के और मंज़िल भी एक थी।
ख्याल भी एक थे और ख्वाहिशें भी एक थीं।
मिलते थे जब अकेले में दोनों तो खूब बातें होती थीं।
और जो भीड़ में भी हों करीब तो नज़रें ज़ुबान होती थीं।
प्यार सच्चा था उनका और मोहब्बत भी पूरी थी।
पर शायद खुदा ने ये कहानी लिखी ही अधूरी थी।
इश्क़ तो सच्चा कर लिया पर हिम्मत कच्ची रह गयी।
समाज के बनाये रिवाज़ बौहत बड़े और खुदा की दी मोहब्बत छोटी रह गई।
न हो पाए वो एक ,
न हो पाए वो एक।
लेकिन अब भी मिल जाती हैं नज़रें बाजार की उस राह पे।
जहाँ से एक सड़क जाती है मंदिर को और दूसरी जाती है दरगाह पे।