आँखों से निकले लेकर ये आस,
बुझ जाएगी मन की प्यास
स्रोत इनका दिल की गहराई
न जाने कितनी भावनाएँ इनमें समाई
खुद में सागर सा स्वाद लिए
पीड़ाओं की लहरों का उबाल लिए
मन की वेदनाओं का विषाद लिए
पुराने ज़ख्मों की याद लिए
चल दिए अपने सफ़र पर
कुछ टपक गए गालों से
कुछ सिमट गए होठों पर..
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“ आकाश रो रहा है, बादल हुए हैं लाल
सूखी पड़ी है धरती, पर भीग गए ये गाल
ऐसी परिस्थिति देखी नहीं थी पहले
बरसात में भी देखो पड़ गया है अकाल ”
“ मैं तो सो रहा था, ख्वाबों में खो गया था
गीले गालों के साथ, मैं तो रो रहा था
प्यासा जी रहा था, आँसू पी रहा था
सभी ने किया पराया, कोई अपना ही नहीं था ”
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ये आँसू मेरे बहते, कहते, सहते हैं ऐसी बातें, इनको बहने से रोको ...
सही जो पीड़ा उर अंतर में, व्यक्त जो होगी
आत्मशक्ति थी जो अचेत, सशक्त जो होगी
सहमी थी जो वाणी कब से, अभिव्यक्त जो होगी
त्यक्त, विरक्त, समाज से त्रस्त, ये द्रवित नेत्र बहेंगे
इनको कहने से रोको ...
ये लावणिक आँसू वर्षा बरसाते लोचन
ये आंतरिक भोगी व्यथा से नापते योजन
ये शून्य अनंत व्योम में खोजे संकट मोचन
ये शोणित नेत्र में यज्ञ समिधा और अग्निशिखा है
इनको सहने से रोको ...
बहे जो आँसू अंतर्मन में आश्रय लिए थे
सहकर पीड़ा दुर्लभ मोती संचय किये थे
भावों को न व्यक्त करने का निश्चय किये थे
स्वयं के व्यूह जाल से निकले, बाँध तोड़ कर उमड़े
इनको बहने से रोको ...
पर पीड़ा से व्याकुल हो, कभी शब्द बाण से आहत
कुत्सा, अपमान, ग्लानि से कभी मिल पाए जो राहत
सुख में, दुःख में, कभी यूँ ही, बस बहने की लिए चाहत
रात के आँसू, ख़्वाब में आँसू, बिन कहे बहुत कहते हैं
इनको कहने से रोको ...
बहे किसी के साथ, कभी एकांत के आँसू
छल के कारण, कभी बहे संताप के आँसू
बिछड़ा कोई, कभी किसी की याद के आँसू
उसके सजल नयन की छवि बसी है स्वयं दृगों में
इनको सहने से रोको ...
बना बैठा था मैं अब तक उपहास का साधन
अट्टहास करते है वे, घबराता तन मन
व्यक्त करने से रोकता स्वयं को हर क्षण
आत्मग्लानि से भरे मन को अब हल्का हो जाने दो, ये आँसू बह जाने दो ...
ये आँसू मेरे बहते, कहते, सहते हैं ऐसी बातें, ये बहें, इन्हें बहने दो, ये कहें, इन्हें कहने दो ...
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