अप्रतिबंध प्रेम- Shehnaz Ahmed

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:

अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।

भगवत गीता के दसवीं अध्याय में भगवान श्री कृष्ण पार्थ से कहते हैं,

उनका ठिकाना हर एक जीव की आत्मा में है, वे उनके अंदर ही रहते हैं।

एक जीव के शुरुआत से लेकर अंत तक,

उसके जीवन के पतझड़ से बसंत तक,

भगवान कृष्ण उसकी आत्मा में स्थित है,

10 वीं अध्याय के 20 वे छंद में इसी प्रकार, भगवान के पता का निरूपण उपस्थित है।

लेकिन इस पते पर कैसे पहुंचा जाए, ऐसी कौन सी विधि भला हम अपनाएं,

कि हम सभी को हमारे हरि मिल जाए,

आखिर क्या है इस कठिन दुविधा से निकलने का उपाय,

कौन है जो हमें इसका रास्ता बताएं?

कई विद्वानों ने आश्वस्त, इसका उपाय बताया,

ईश्वर प्राप्ति का निसंदेह मार्ग इन विद्वानों ने दिखाया,

जो थी पूजा-पाठ और अनंत विधियां,

ईश्वर से भेंट के बदले मांगी कुबेर की निधियां।

कई आए और गए, जिन्होंने भगवान का ही सौदा कर डाला,

चलो लुटेरे तो लूट कर चले गए, फिर भी हाथ ना आए गोपाला।

जो उपाय बताने आए थे, वे मतलब निकाल कर निकल पड़े,

जो उपाय मांगने गए थे, वहीं के वहीं रह गए विकल खड़े।

पर उपाय तो वही बता पाएगा ना जिसने स्वयं हरि को पाया है,

जिसने केवल भगवान को ही नहीं भगवान ने भी उसको अपनाया है।

अरे!...ऐसी कोई तो है यथार्थ में, जिनके त्याग और समर्पण ने गोविंद को रिझाया है,

ब्रजरानी राधा के अप्रतिबंध प्रेम की गाथा ने, कृष्ण दर्शन का मूल हमें बहुत पहले ही समझाया है।

कदाचित यह अप्रतिबंध प्रेम ही है जो हमें हरि के समीप लाएगी,

परंतु अप्रतिबंध प्रेम किससे करें? संभव है, पूर्वस्थित 20 वी छंद हमें इसका उत्तर बताएगी।

हर जीव से अप्रतिबंध प्रेम करने का प्रयास ही क्या पता हमें ले जाएं उसके आत्मा में बसे भगवान के पास?

कृष्ण भी तो राधारानी से अप्रतिबंध प्रेम करते है, क्या पता राधा की ही विधि उनको आए रास?