दर्पण- Siddhi Khater

दर में अपने ही छाया से मिलती हूं !

छाया में अपना ही दर–दर भटकती हूं !

शीशे से साफ पानी में भी

एक कंकर छिपा सा है

चुभन के एहसास से

उस कंकर को ढूंढ़ती हूं !

दर्पण में साफ़ जब ख़ुद से मिलती हूं

ख़ुद को ही मैं क्या अर्पण करती हूं?

काजल , कजरा श्रृंगार सारे

सज कर भीं फीके से लगते हैं,

वो कंकर के निशान

जब उभर के दिखते हैं।

हल्के पड़ गए है सब, बस मिटने की देर है

गेराहियो में मेरे एक तेरा ही तो अक्स है।

हर दर्पण पूछता , तुम्हारा क्या अर्पण है?

बिखरा हुआ हर अक्स मेरा

हर टूटे शीशे में दिखता है

संवारना किसे ये तो

मुझ पर निर्भर करता है ।

तार –तार हो कर भ तो

ये कितना सुंदर है।

जुड कर जो बना

ये मेरा ही तो चरित्र है!!