Mahila sashaktikaran ( Women empowerment)- Manish Mishra

जल की शफरी सा चंचल मन, अविरल धारा सा बहता मन, घूम रही मैं इधर उधर होकर निर्भय और स्वच्छंद ।

अजर,अमर ,अविनाशी हूँ ,जल ही जैसे हो जीवन।

उद्वेलित हो उठता मन , है कैसा ये मानुषी प्रतिबंध ।

क्यूँ समाज कि बेड़ी में , उलझा है मेरा तन और मन।

मैं तोड़ रही अब हर बंधन , अब जल जैसा मेरा जीवन।

जिस दिशा भी अब मैं जाऊँगी पाषाण को रेत बनाऊँगी।

अपने मन कि अभावों से , पृथ्वी में ज्योत जलाऊँगी ।

छँटा भिखेरे अलकों की ,नहरों में नाचती मैं “निविदा”,

पृथ्वी के सारे नियम को अब दर्पण मैं दिखलाऊँगी ।

वेग झुका दे जितना भी,जड़ वृक्षों सी अड़ जाऊँगी।

सृजन मेरा स्वाभाविक है , मैं फिर से फूल खिलाऊँगी ।

झड़ जाए जो फूल भी एक , मैं कभी नहीं पछताऊँगी,

अरुणिमा मैं अरुण कि हूँ , मैं लौट सुबह फिर आऊँगी ।

अबकि बार सुबह खड़ी मैं दूर से देखूँगी जीवन ,

काश मेरा मन भी हो पाता कविताओं सा एक हिरण ।