जल की शफरी सा चंचल मन, अविरल धारा सा बहता मन, घूम रही मैं इधर उधर होकर निर्भय और स्वच्छंद ।
अजर,अमर ,अविनाशी हूँ ,जल ही जैसे हो जीवन।
उद्वेलित हो उठता मन , है कैसा ये मानुषी प्रतिबंध ।
क्यूँ समाज कि बेड़ी में , उलझा है मेरा तन और मन।
मैं तोड़ रही अब हर बंधन , अब जल जैसा मेरा जीवन।
जिस दिशा भी अब मैं जाऊँगी पाषाण को रेत बनाऊँगी।
अपने मन कि अभावों से , पृथ्वी में ज्योत जलाऊँगी ।
छँटा भिखेरे अलकों की ,नहरों में नाचती मैं “निविदा”,
पृथ्वी के सारे नियम को अब दर्पण मैं दिखलाऊँगी ।
वेग झुका दे जितना भी,जड़ वृक्षों सी अड़ जाऊँगी।
सृजन मेरा स्वाभाविक है , मैं फिर से फूल खिलाऊँगी ।
झड़ जाए जो फूल भी एक , मैं कभी नहीं पछताऊँगी,
अरुणिमा मैं अरुण कि हूँ , मैं लौट सुबह फिर आऊँगी ।
अबकि बार सुबह खड़ी मैं दूर से देखूँगी जीवन ,
काश मेरा मन भी हो पाता कविताओं सा एक हिरण ।