ये कितना निर्मम और क्रूर समय है
जिसमें हम जी रहे हैं
हम अपनी आंखों के सामने
एक बेबस बालिका की नृशंस हत्या होते
तमाशबीनों की तरह देखते हैं,
वो भी तब जब हमारा मामूली सा प्रतिरोध
इस घटना को रोक सकता था और
उस लड़की की जान बचा सकता था।
पर नहीं वहां उपस्थित तमाम लोग
पता नहीं किस गहरे भय से
या समाज में व्याप्त एक अजीब सी
सामाजिक उदासीनता के वशीभूत
निर्विकार भाव से गुज़रते रहे जैसे
यह उनके लिए रोजमर्रा की
एक सामान्य सी घटना हो
और इससे उन्हें कोई भी अंतर नहीं पड़ता ।
ऐसी ही निरपेक्षता,उदासीनता
लगभग कम या ज़्यादा हम सबमें
कहीं गहरे तक समा गई है,
हम तब तक नहीं जागते
जब तक ऐसा कुछ हमारे साथ
या हमारे किसी अपने के साथ घटित न हो जाये।
वही सब लोग जो इस घटनाके मौन साक्षी थे
अब चीखेंगे,चिल्लायेंगे,शोर मचायेंगे
निर्जीव चीजों पर अपना आक्रोश निकालेंगे
भीड़ के साथ सड़कों पर उतरेंगे
इसको-उसको दोषी ठहरायेंगे
इस बात का उस बात का रोना रोयेंगे
इस आग में अपनी किस्म किस्म की रोटियां सेंकने
तमाम तरह के लोग कूदेंगे
हर जगह जोरदार बहसें होंगी।
पर प्रश्न जो गहरे हैं
इसी अंतहीन शोर में
हमेशा की तरह दबकर रह जायेंगे ।
प्रश्न तो ये हैं कि
हम अपने अंतर के भय से कब उबरेंगे
कब अपनी उदासीनता छोड़ेंगे
कब ऐसी घटनाओं को
अपनी आंखों के सामने घटते देख
चुप रहना छोड़ेंगे,मुंह नहीं मोड़ेंगे ।
हम कब -आख़िर कब
अपने डर की जंजीरें तोड़ेंगे।