माघ महीने का सर्द रात
हवा की रफ्तार कुछ तेज है।
चुप – चाप लेटी हुई हूं,
आसू भरी आंखे और चारो तरफ ओझल है,
खिड़की बाहर वो चांद की रोशनी,
खिड़की बाहर वो चांद की रोशनी,
आज चमकने के बजाए आसू भरी है।।
आंख से आसू बहाते
अपने विवाह के दिन को याद किया
कितनी खुस थी में;
कितना खुस था मेरा परिवार।
मां का घर छोड़कर,
मां का घर छोड़कर,
इस घर को खुसी से स्वीकार किया।।
विवाह जीवन का एक
अच्छा सुरुवात हुआ।
पति पत्नी का प्यार और लगाव गहरा हुआ;
जो सोचा था सब पूरा हो रहा जैसा लगता था,
जो सोचा था सब पूरा हो रहा जैसा लगता था,
पर, दुर्भाग्य का अंधकार छाया।।
मां नही बन सकी मैं,
घर का माहोल धीरे धीरे खराब होता गया।
मां न बनना वो दर्द और पीड़ा,
अपने मुस्कुराहट से छिपाती।
सास ससुर, रिश्तेदार और समाज
के व्यवहार को देख, मैं चौक जाती।
दिल टूटकर टुकड़े – टुकड़े हो जाते जब,
दिल टूटकर टुकड़े – टुकड़े हो जाते जब,
दिन प्रतिदान अपने पति के प्यार से
मैं वंचित होने लगी।।
रात रात भर मैं रोती,
बाँझ शब्द चार दीवारों में है गूंजती।
परिवार, रिश्तेदारों का तिरस्कार
आंखो के आगे है घूमती रहती।
सब गलती मेरी है – मैने स्वीकारा,
पति के शराब के लत को भी मैने स्वीकारा,
क्योंकि गलती मेरी है।
पर, वो लत इतनी बढ़ गई,
पर, वो लत इतनी बढ़ गई,
कि मैं घरेलू हिंसा की शिकार हो गई।।
माइका एवं समाज में कुछ बोलते ही
गलती मेरी है बोलकर मुझे चुप करा दिया गया।
अपना बाँझ होने का गलती स्वीकार कर
दिन – प्रतिदिन होने वाले
घरेलू हिंसा को भी मैने स्वीकारा।
चेहरे पर सिर्फ चोट के निशान है
शरीर भर कही जले हुए दाग,
तो कही नीले निशान है।
बंद कमरे में बैठ –
आसमान को बस देखती रहती हूं।
कमरे के अंदर कोई आए –
कमरे के अंदर कोई आए –
डर से सिमटकर, मैं कोने में छुपकर बैठती हूं।।
आज वो माघ महीने का सर्द रात
हवा की रफ्तार कुछ तेज है।
चुप – चाप लेटी हुई हूं,
आसू भरी आंखे और चारो तरफ ओझल है,
खिड़की बाहर वो चांद की रोशनी,
खिड़की बाहर वो चांद की रोशनी,
आज चमकने के बजाए आसू भरी है।।