कुछ बिखर सी गई थी
कांच के टुकड़ों से
समेटने की भी दरकार नहीं थी
शायद इस तस्वीर का डर था
जो सिमटी हुई आईने में मिलती
शायद बदहवास शायद मरी हुई
मौत का डर मौत पे भारी था
कुछ पुरानी बीती परछाईयां
आंखों का सहारा थी
धूप में उड़ती धूल की तरह
बस एक पल की झलक
दूर बुलाती एक आवाज थी
घर आ जा...
एक पुकार ही काफी होती
अगर कोई घर होता