आशिया- Deepa Sahchari

कुछ बिखर सी गई थी

कांच के टुकड़ों से

समेटने की भी दरकार नहीं थी

शायद इस तस्वीर का डर था

जो सिमटी हुई आईने में मिलती

शायद बदहवास शायद मरी हुई

मौत का डर मौत पे भारी था

कुछ पुरानी बीती परछाईयां

आंखों का सहारा थी

धूप में उड़ती धूल की तरह

बस एक पल की झलक

दूर बुलाती एक आवाज थी

घर आ जा...

एक पुकार ही काफी होती

अगर कोई घर होता