‘एक औरत की ज़ुबानी’- Harshita Yadav

ट्रिगर चेतावनी: यह कविता महिलाओं के ख़िलाफ़ होते उत्पीड़न और शोषण के ऊपर निर्धारित है।

‘एक औरत की ज़ुबानी’....

बेटी, पोती, बहन, बीवी, बहु, भाभी, माँ, सास, दादी, नानी

अपनी खुद की पहचान भूलकर,

हर पल एक नयी पहचान मैंने दिल से है मानी

लेकिन फिर भी,

तूने अपनी हदें ना जानी

हमेशा की तूने अपनी मनमानी।

क्या बच्ची, क्या लड़की, हर औरत ने दी है तुझको क़ुर्बानी !!

आख़िर क्यूँ… तूने मेरी क़ीमत ना पहचानी ?

आख़िर क्यूँ तूने मेरी क़दर ना जानी ?

काश तूने एक बार सोचा होता,

काश तुझे भी वो दर्द हुआ होता।

ओह...मगर कहते हैं कि मर्द को तो दर्द नहीं होता,

ये बात तो तूने बराबर जानी,

मगर तू कैसे भूल गया कि

तुझे इस दुनिया में लाने वाली भी थी एक जनानी !

फिर कैसे पहुँचायी तूने एक औरत और उसके सम्मान को हानि ?

कैसे तूने अपनी निगाहें अपनी बच्ची जैसी पर तानी ?

कैसे की तूने अपनी बहन से छेड़खानी ?

क्या कभी सोचा है तूने कि तेरे इन आँखों से किए गए हमारे शरीर के स्कैन ने

हमारी रूह को है कितनी ठेस पहुँचायी,

हर उस पल में हमें खुद से है कितनी घिन्न आयी।

तेरी एक छूअन ने

हमारे दिल में एक ऐसी आग लगायी,

जिसमें मैं खुद ही जलकर, अपनी आत्मा की राख को

अपने आंसुओं की गंगा में बहा आयी।

मगर फिर भी तुझे ज़रा भी लाझ न आयी।

हम्म..हम्म

पता है क्यूँ..?

क्यूँकि हर बार तूने अपनी करतूत हमारे ओढ़ने-पहन्ने, चलने, व बोलने के ढंग की ओट में है छानी,

पर क्यूँ...

क्या तेरा हाथ रुक गया था..?

जब थी वो घूँघट में छिपी एक नारी !!

जब बोली वो तुझसे मीठी वाणी

उसका बढ़ावा समझ, कर गया तू उससे शैतानी !!

अगर इतना ही था तू आग्यकारी

तो क्यूँ नहीं रुका जब की उसने आनाकानी ?

आख़िर तेरी इज़्ज़त पे है आँच आनी,

अगर उसने तेरी बात ना मानी।

क्यूँ...

वो कोई चीज़ है क्या जिसकी करके लाया था तू ख़रीदारी ?

सात फेरों ने बनाया है तुझे उसका साथी,

फिर क्यूँ समझता है तू उसे अपने पैरों की माटी।

बराबरी की इज़्ज़त और प्यार की हक़दार है वो,

तेरी बीवी है, नाकी तेरी कोई क़र्ज़दार है वो।

तू कहता है कि तुझे प्यार है उससे..अच्छा..? फिर कैसे कहा तूने ...”मैं लूँगा तुझसे बदला...अब पड़ेगी मुझे तू तड़पानी”

क्यूँ...

तेरी इज़्ज़त इज़्ज़त, उसकी इज़्ज़त दरिया का पानी !!

और कोई नहीं बल्कि ये समाज ही है इनकी सोच को बढ़ावा देने वाला,

हमें घरों में बंद करके, इनको सड़कों पे खुला छोड़ने वाला।

अरे छोड़ो ये दक़ियानूसी तरीक़े,

और सिखाओ अपने होनहार लड़कों को कुछ सलीके;

क्यूँकि ऐसी कोई जगह नहीं जहां इनके गंदे विचारों ने हमें जकड़ ना रखा हो,

अरे ऐसी कोई जगह नहीं जहां हमारे सम्मान को इन्होंने कचोट ना रखा हो ।

अरे बस करो अब,

ना हैं वो कोई राजा, ना हम उनकी रानी;

हमारे कपड़ों की लम्बाई की जगह,

पड़ेगी इनकी सोच की लम्बाई बढ़ानी।

आख़िर कब तक हम कहते रहेंगे इनकी हरकतों को बचकानी ?

कब तक पड़ेगी इनकी ग़लतियों पर हमें मार खानी ?

आख़िर कब तक चलेगी इनकी ये प्रेमकहानी ?

अब बस....

इनकी गंदी सोच को हमें है लगाम लगानी,

पड़ेगी हमें अपने अंदर की शक्ति जगानी;

जब हमारी कोई गलती ही नहीं,

तो क्यूँ किसी से इनकी करतूत छुपानी।

बहुत हुआ अब !!!

सुन ले ए- मर्द..., रोक ले अपना ये दिमाग़ तूफ़ानी,

यहीं पर पड़ेगी तुझे तेरे कर्मों की सजा चुकानी;

क्यूँकि...

अगर उस औरत ने है ठानी,

तो वो ले लेगी रूप मर्दानी,

और बदल डालेगी तेरी कहानी !

बदल डालेगी तेरी कहानी !

9 महीने अपने रक्त से तुझे सींचने वाली को ना धितकार तू,

हर साल तुझे अपना रक्षक समझकर राखी बांधने वाली को ना फटकार तू,

अपना सब कुछ छोड़कर, तेरे वंश को चलाने वाली को ना मार तू।

मत भूल, हर मोड़ पर खड़ी औरत में वही क़ुर्बानी, वही आत्मा बस्ती है,

बस और कुछ नहीं तो, सबको को उन्ही इज़्ज़त भरी नज़रों से देख तू ।

तू कर इज़्ज़त, मिलेगा तुझे दोगुना सम्मान,

तू कर बेज़्ज़त, मिलेगा तुझे चौगुना इंतेकाम।

हाँ है मेरा आँचल कोमल,

मगर उसके अंदर पनपती चिंगारी भी जानले तू;

अपने अंदर एक ज़िंदगी पालती हूँ मैं,

मुझे ना ललकार रे तू

मुझे ना ललकार रे तू ।।

धन्यवाद आप सभी को मेरी कविता को अपना क़ीमती समय देने के लिए।