वो दमकता चंद्र पूरा भी अकेला
और आधा भी अकेला
दृढ़ खड़ा होता है नीले आसमां में
कौन बोलो पा सका निज साथ
इस निर्मम जहां में।
देखती धरती व गृह नक्षत्र सारे
है अकेला सूर्य भी अपने सहारे
जीवन का हो संचार
मृत्यु भी उसी में
फिर भी नियति यूं है
के उसके अंश से सब है
नही पर वो किसीमे
चमचमाता चाहे हो तारों का मेला
या अनिल हो बावरी,
चहुंँ ओर हो अंबर सजीला
कोई तेजस मध्य में अक्षत खड़ा है
हो सभा मदमस्त वो संतत अड़ा है
है यदि उल्लास, अंतर भी सभा में
कौन बोलो पा सका निज साथ
इस निर्मम जहां में।