“बेटी”
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ,
बेटी को बेटा बनाओ,
पर इससे कहां कुछ हल होगा,
अन्नपूर्णा और दुर्गा बनकर भी तो,
नाम और पता उसी का बदल होगा !
फिर भी नई जगह, नए लोगों से खुशी-खुशी एडजस्ट कर जाएगी,
पूरी दुनिया को खुशी-खुशी अपना नया नाम बताएगी,
सुबह उठेगी खाना बनाएगी, सबको खिलाएगी, बच्चों को स्कूल पहुंचाएगी
और इन सब में अपना खाना तो कहां ही याद रख पाएगी,
पर फिर भी जल्दी जल्दी ऑफिस को भाग जाएगी,
क्योंकि बॉस तो वहां भी एक बैठा होगा !
बेटी को बेटा बनाओ,
पर इससे कहां कुछ हल होगा !
शाम को जब निकलेगी ऑफिस से, तो ऑफिस वहीं छोड़ आएगी,
सबसे पहले याद करेगी बच्चों को,
और आते में सब्जी और किराना साथ ले आएगी,
सिर दर्द से फट रहा होगा, पर अपनी चाय खुद ही बनाएगी,
मन करेगा रख लूं कुछ पल सर तकिए पर मैं भी,
पर अन्नपूर्णा तो घर की वही है,कहां किचन छोड़ पाएगी,
बच्चों का होमवर्क और ऑफिस का बचा वर्क भी तो,
आज ही खत्म करना होगा !
बेटी को बेटा बनाओ,
पर इससे कहां कुछ हल होगा !
इतना करके भी शिकायतें कहां कम होगी,
घर परिवार हॉबी कैरियर,
इनके तालमेल मे, आंखे तो सिर्फ उसी की नम होगी,
फिर भी उठ खड़ी होगी बेचारी हर दिन,
सोचकर की शायद कल एक नया कल होगा !
बेटी को बेटा बनाओ,
पर इससे कहां कुछ हल होगा !
अगर चाहते हे सच में हल पाना,
तो सामूहिक यह प्रयत्न करना होगा,
स्लोगन यह अधूरा रह गया है शायद,
बस इसी को तो पूरा करना होगा,
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ,
बेटी को बेटा बनाओ,
पर बेटे को भी तो थोड़ा बेटी बनाओ !
और तभी ही तो कुछ हल होगा |
तभी ही तो कुछ हल होगा ||