बंजर- Ravina Chandak

सीना टूटा जा रहा है, इस बंजर से आसमान में गहराती शिकायतें भी अब थंब सी गई है एक दरिया था जीवन का अब पनघटे भी सूख रही है समय के स्वरूप से

सपने थे, शिकायतें थी, उम्मीदें थी और ज़िन्दगी जीने का इरादा सब बहे गए इस सैलाब में ना दुःखी होने का और ना ही सूखे होने का असर अब दर्द भी जम गया, सूखे खून की तरह

अब शुरू से शुरू करने की उम्मीदें भी मर गई है इस मन के फैसले भी संभल रहे है कोई फैसला लेने से यह दर्द और इस दर्द के इरादों में ना छाँव का और ना ही किसी किनारे का जिक्र

अब इस मन की गालियां में उबल रही बंजर सी परतें अब ना सुकून की चाह, ना ही सुख की चाह बस मन के उस किनारे का इंतज़ार जहाँ ना जीतने की तमन्ना, और ना ही हारने का गम

मन को इंतज़ार बस उस एकांत का जहाँ सांसे भी रुकती है, मौत के इंतज़ार में बिना सुख दुःख के फर्क में फंसे बस एक ज़िन्दगी, बस एक मौत, उसके बीच में कुछ हसीन पल

जो ज़िन्दगी की सड़क को जमीन भी देते हो और मौत से ज़िन्दगी की सच्चाई को जोड़ते है हर पल बिना किसी दर्पण के उन पलो में दर्द नहीं होता और ना ही क्रोध के क्षण

जहाँ ज़िन्दगी के खेत में सच भी ज़िंदा होता है, जहाँ मौत का खौफ भी नहीं होता और मन के मैल भी धुल जाते है बिना किसी कड़वाहट के ऐसी ज़िन्दगी एक हक़ीक़त और सपना भी होती है सिर्फ जीने वालो के लिए वरना दुख और दर्द के पहाड़ भी मौत से कम नहीं कच्चे मन और तन वालो के लिए

और मैं खड़ी हूँ इन्हीं किसी किनारों पर जहाँ दुःख एक हक़ीक़त है ज़िन्दगी की सच्चाई भी एक अमृत है और यह डगमगाता मन तड़प रहा है कि यह खौफ है या मन के कागज की बाते पर कुछ तो घटित हो रहा है, मन के पन्नों पर

यहाँ सवाल बहुत है, बुद्धि शून्य है और तड़प है सुलझने की अब नासमझी भी समझ आ रही है चल रही है, बसर रही है, ज़िन्दगी की पहेलियाँ इस तन के रेगिस्तान में कई सवालों से लदी है, इस मन की रैलियां ना घर का पता और ना ही कब्रिस्तान का

बस सांसे झूल रही है इन सुनसान सवालों की बेड़ियों में जहाँ ज़िन्दगी खुली किताब होकर भी तोहफे में कैद है, कभी मन में, कभी सांसो में, और कभी सवालों में यह बाड़ है, मेड़ है, मोड़ है या फिर मन का वहम पर अब सच में आईने से भी डर लग रहा है कही यह बांध टूट ना जाए संजोया है खुद को खुद के लिए ज़िंदा रखने की कोशिश में

जरूरत तो बहुत है सब्र, समझदार और सहनशील बनने की पर यह नादानी करना भी ज़िन्दगी का हिस्सा ही है कभी-कभी आँखें ढूंढती है, ज़िन्दगी के उन खम्भों को जहाँ कोई तो खुश होगा, ज़िन्दगी से जब-जब इन आँखों ने देखा, यह दुनिया सिर्फ बंजर ही नजर आई और अक्सर बंजर जमीन पर मेहनत के बीजों की सख्त जरूरत होती है

इस लम्बे दर्द की राहे से निकल भी जाऊँ और सुलझा लू अपने गम की पहेलियाँ लेकिन ना मन, ना तन, और ना ही यह इन्द्रियां तैयार अब यह मोहलते माँग रही समय में, समय से परे होकर मोहलते भरोसे की, यकीन की और संयम की

जहाँ मन के कागज पर पीड़ा सांसो से लिखी हो,बस लेते ही ख़त्म और उसका महत्व भी कम ना हुआ हो जहाँ मस्तिष्क भी सुलझ रहा हो तन को सुन रहा हो, धड़कन की तरह मन मिल रहा हो, सिर्फ मन की तरह