Prashn-jaanki | Shubham Mishra

हे राम मुझसे क्यों मिले तुम,नील-नीरज क्यों खिले तुम

क्यों अभागी मैं,धरा के सर्वश्रेष्ठ नर की भागी

क्यों न तुम सामान्य होते,सबके न बस मेरे होते

सौंपने सुख भक्षक जगत को,वियोग वरके हम यूँ न रोते |1|

प्रिये अनुजों के संग तुम,जब जनकपुर में आये थे

निहारते नाना नपुंसक नेत्र निर्लज्जता से ,बस वीर तुम ही सम्मान से लजाये थे

बल भुजाएं क्रीड़ा बस थी,तुम मुझे बस भाव से जीत पाए थे

हाँ फिर बतादो अन्तर्यामी,सूक्ष्म-श्रेष्ठ सबके स्वामी

जब किया स्पर्श शिवधनुर का,सौगंध तुमको तेरे प्यारे 'शुभम' का

तुम उसी क्षण बाण एक,मेरे हृदय में भेंध देते

कम से कम हम वचनों के,वैतरणी में ऐसे न डूबे उतरते|2|

हे राम मुझसे क्यों मिले तुम,तब मिले तो अब क्यों गुम

छोड़ जनक स्नेह की डगरी,आयी नाथ मैं तेरे नगरी

अवधपुरी के अवैध अहम से,मैं तो जी अनजानी थी

सत्ता से सत्य पराजित न होगा,सम्भवतः मैं अर्धज्ञ अभिमानी थी

मुझको कहाँ पता था श्वेत सरयू कृष्ण हो जाएगी

बाहर के प्रपंच के लिए भीतर कलह मचाएगी

सप्त-जन्म और सप्त-वचन पर एक-नियम भारी होगा

निर्बल नारी के निर्वासन से ही नारायण सिद्ध न्यायकारी होगा|3|

क्या तुम सँग मैं न त्याग भवन को भुवन भर में भटकी थी

या प्रभु त्याग मेरा अभाग बस,काटों सी मैं, तेरे धर्मचरण में अटकी थी

क्या पंचवटी के अंधे वन में भी,एक पल को मैं पथराई थी

या प्रभु तुम्हारी सेवा से सीता कभी कतराई थी।

भूखें साधू के श्रापित-स्वर से,तेरे अहित को घबरायी थी

भहरूपीए को भिक्षा देने, मैं द्वार पार तभी आयी थी

उस कपटी ने तुझ संग,मेरे एकांत-सुख को छीन लिया

मुझ वनवासन के इकलौते शासन,स्वाभिमान से हीन किया

पर झूठी-मर्यादा की रेखा से,धर्म-भरण कब तक होता

सौप अगर धनुष जाते तुम,तो सीता-हरण नही होता|4|

कैसे बल मैं दिखलाती , नरत्व को धुंधलाती

कोमलता परिभाषा मेरी जग ने दी

अकेली मैं पूरे जग को कैसे झुठलाती

कौन संत और कौन हन्त स्वाभाविक मैं होगी भ्रंत

भीतर की वेदी में सीमित क्या जानूँ बाह्य-लोक कितना ज्वलंत

एक छली पर मैं लूटि थी , एक छली ने मुझको लूटा

दोनों कठोर दोनों हठी , बस मेरा ही भंगुर उर टूटा|5|

सत्य कह रही जिस पल उसने मेरे हारे-हाथ छुए थे

खींच पुष्पी-केशों को मेरे उसके पुष्पक-विमान उड़े थे

जंजीरों में जकड़ी जनकसुता के भाल पे भगवा राम बसे थे

पर जान लो तुम मैं खुदकी रक्षा को न 'राम नाम' चिल्लाई थी

उस निर्मम की निर्ममता से तेरी हानि को घबराई थी

नियम की नथुनी, कर्म के कुंडल कुमार्ग में गिराई थी

घृणा-प्रेम-युद्ध विजय की कूटनीति बतलायी थी

अंधकार में कर प्रकाश तो कीटभृंग तो जलते ही हैं

और धर्म विजय के मार्ग में कुछ अनियम चलते ही हैं।

जैसे तोड़ी रावण की नाभि रीति वैसे इक तोड़ देते

मृत्युदंड भले दे देते बस अग्नि परीक्षा छोड़ देते

पर क्यूँ हरि तुम सुनते सबकी बस मेरी ही न सुनते हो

तुम मैं हूँ और तुम में मैं हूँ तुम तुमको ही क्यों हंते हो|6|

क्या तुम न जानों मैं क्या तुम्हें मानूँ

अपने कजरे का कंज प्रभु,अपने गजरे का रंग प्रभु

अपने यौवन का यश तुमको,अपने मन का शशि तुमको

मुझमे तू तुझमे मैं ओतप्रोत

तू ही रतिश्री है स्रोत

मेरी नटखट मुस्कान का

मेरी अठखेलियों के प्राख्यान का

मुझ अज्ञानी के ज्ञान का

मेरे प्रेम का मेरे नेह का

मेरे प्राण का मेरे देह का

जानते हो शीत पवन भी चुभता मुझको

उपहाषित कर उत्तेजना से कहता मुझको

क्यों तू पागल प्रेम में उसके

प्रेमी अनंत है जग में जिसके

सह न पाती प्रभु ताने मैं

प्रत्युत्तर लगी बखाने मैं

ऐ पगले पवन मैं न पागल हूँ

बिखरी हूँ बस थोड़ी सी थोड़ी सी शायद घायल हूँ

जग को मैं न जानूँ मैं बस उनको अपना मानूँ

वो सौंपे सबकुछ जगको मेरा सब उनको कायल है

राम स्वंम जिसके घुंघरू सीता पगले वो पायल है

पर क्या प्रभु मेरा कथन कहीं बस एक कोरी अतिश्योक्ति है

या सच में उतना ही व्याकुल शिव भी जितना उसकी शक्ति है|7|

मैं जानूँ तुम एश्वर्यनाथ,काम तेरे सम्मुख विनाथ

कितनी सीता सी सी कर तेरे पादमृदा में मिल जाती

फिर भी तुम जिस खातिर भटके,सिय वो,फूली क्यों न समाती

पर इतने पावन प्रेम के पग में पाखंड का क्यों प्रवेश हो गया

सीता ही अग्नि में क्यों जली और राम का जलना शेष रह गया..|8|