वो एक लम्हा | Akhilesh Sharma

कभी तो उम्र गुज़र जाती है, बस चंद लम्हों की तलाश में,

कभी तो यूँ कि एक लम्हे में, सारी ज़िन्दगी सिमट जाती है,

पहले पहल जब नज़र आया था,

दूर उफ़ुक़ पर सुब्ह-ए-आफ़ताब,

पहले पहल जब देखे थे हमने,

रात के साए में अंजुम-ओ-माहताब,

ये उजाले अब शायद वैसे नहीं हैं ,

ये चांद भी शायद वैसा नहीं है,

वो शब जो कट जाया करती थी,

तिरी साँसों की रग़बत में,

ये रात जो गुज़रती ही नहीं,

अब इन गूँजते सन्नाटों में

लेकिन यहां तेरे बगैर भी,

कुछ लम्हे मेरे अपने हैं,

दर्द की सियाही में लिथडे हुए,

कुछ सपने मेरे अपने हैं,

हाँ, कभी कभी तुम्हारी याद,

आज भी लौट कर आती है,

वो कभी कभी सूकून का,

इक लम्हा छोड़ चली जाती है

मगर सच तो ये है जाने-जाहां,

तेरी आशनाई के दिन गुज़र चले हैं,

तेरी उलफ़त के तमाम साये,

मेरी ज़िंदाँ से उड़ चले हैं,

अब तो ज़हन में अजब तसव्वुरात आते हैं,

कुछ टूटे हुए ख़्वाब फिर से नज़र आते हैं,

कुछ तो परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम हो जाते हैं,

कुछ शायद ज़हन में कहीं खो कर मर जाते हैं,

इक-इक लम्हा जैसे सियाही मैं कैद होने चला हो,

इक-इक लम्हा जैसे वो खुद ही अब जीने लगा हो,

क्या एक लम्हा कभी ज़िंदगी से ज्यादा जीता है?

क्या ज़िंदगी बस एक लम्हे भर में गुज़र सकती है?

हम लोग इसी कलम से लम्हों को ज़िंदा रखते हैं,

हम लोग इन्हीं सवालों में वो एक लम्हा ढूंढते हैं,

कि शायद उस लम्हे में कहीं एक नया कोई ख़्वाब मिले,

कि शायद उस लम्हे में कहीं अपने होने का जवाब मिले,

शायद इसी लम्हे की तलाश का नाम है ज़िन्दगी,

शायद वही एक लम्हा भर के लिए जिए जाते हूँ।।