मैं अपनी किताबों से | Divyanshi Malik

तुम ज्ञान का सागर हो, डूब जाने को मैं चली आई।

तेरे शब्दों की छाया में, बस जाने को मैं चली आई।।

हम तो दोस्त थे बड़े गहरे, न जाने बीच में क्यों ठहरे।

चलो कुछ मैं बढूं कुछ तुम बढ़ो, अभी तो लक्ष्य कई हैं रह रहे।।

लक्ष्य देखे थे हमने साथ में, गहरी सी उन रात में।

सोचा था हमने ढेर सारा, जब तेरे हाथ थे मेरे हाथ में।।

गिर ना जाऊं मैं बीच में, सहारे को फिरसे हाथ दो।

हर कोशिश करेंगे ज्ञान पाने की, बस तुम थोड़ा सा साथ दो।।

साथ में हम फिर बढ़ेंगे, हर लक्ष्य को पूरा करेंगे।

मंजिल तक पहुंचने की, उम्मीद मैं तुझसे जोड़ आई।

तुम ज्ञान का सागर हो, डूब जाने को मैं चली आई।

तेरे शब्दों की छाया में बस जाने को मैं चली आई।।

फिरसे बढूंगी तेरी ओर, मैं हर रोज़ मुलाकातों में।

हम फिर मिलेंगे हर रात, उन पहले से जज़्बातों में।।

मैं फिर पढूंगी ध्यान से, तेरे शब्दों को इत्मीनान से।

ढूंढूंगी उत्तर हर प्रशन के, मैं खुद पूरे ईमान से।।

पढ़कर तुझे फिर कलम से, मैं सार उतार लूं।

बार-बार कई बार, मैं तुझको निहार लूं।।

ज्ञान के भंडार में, मैं हर पल गुज़ार लूं।

सीख-सीख तुझसे, हर गलती सुधार लूं।।

गलती सुधार आगे बढ़ पाना, हे पुस्तक मैं तुझसे ही सीख पाई।

तू फिरसे सदा को साथ दे मेरा, इस उम्मीद में मैं तेरे पास आई।।

तुम ज्ञान का सागर हो, डूब जाने को मैं चली आई।

तेरे शब्दों की छाया में, बस जाने को मैं चली आई।।