बोध | Gaurav Abrol

मन में पलती दुविधाओं से, निर्मित सीमाएं लांघ कर

बैठ उड़न खटोले में साहस के, आज कहीं मै दूर चला

जहाँ ना पाश निराशा का, ना नियमों का कोई बंधन है

जिधर नज़र दौड़ाता हूँ, बस अवसर भरा समंदर है |

जिधर नज़र दौड़ाता हूँ, बस अवसर भरा समंदर है ||

विचर रहा था वर्षों से

जिस अनुपम सुख की तृष्णा में

जो मिला न हिम की चोटी पर

ना ताल में पाताल में

है आज उसी का बोध हुआ

अंतर-मन के अवलोकन से

है कहीं नही बस छिपा

यहीं इसी के अंदर है

जिधर नज़र दौड़ाता हूँ

बस अवसर भरा समंदर है |

जिधर नज़र दौड़ाता हूँ

बस अवसर भरा समंदर है ||

नत-मस्तक हूँ उस दीपक को

जग-मग जग-मग जो करता है

आलोकित कर वह जग भर को

अन्दर ही अन्दर जलता है

गिरि सम दृढ़ता हो मन में

फिर क्या बदली क्या बवन्डर है?

जिधर नज़र दौड़ाता हूँ

बस अवसर भरा समंदर है |

जिधर नज़र दौड़ाता हूँ

बस अवसर भरा समंदर है ||

ना दिन ना ही रात है ना सूखा ना बरसात है

ये सुख -दुख की गाथा भी तो समय -समय की बात है

जो कल था वह आज नहीं , आज है जो वह कल ना होगा

स्वीकार किया ये सत्य वचन तो जीवन कभी विफल ना होगा

परिवर्तन ही इक मात्र है जो निश्चित और निरंतर है l

जिधर नज़र दौड़ाता हूँ बस अवसर भरा समन्दर है ll

विचलित मन के भावों से , इस चोटिल रूह के घावों से

आसक्त ह्रदय के क्रंदन से और भव विषयों के बंधन से

जो मुक्त हुआ वही माधव है , वही पोरुस वही सिकन्दर है

और जिधर नज़र दौड़ाता हूँ बस अवसर भरा समन्दर है l

जिधर नज़र दौड़ाता हूँ बस अवसर भरा समन्दर है ll