एक वृक्ष की आत्मकथा - Jaya Mishra

THE FOLLOWING POEM BY JAYA MISHRA FROM RANCHI WON THE FIRST PRIZE IN WINGWORD POETRY PRIZE 2024- SUMMER CYCLE, REGIONAL CATEGORY.

देखे मौसम देखी सदियाँ

मैं मूलों से ही जुड़ा रहा

उड़ते देखे नभ में पँछी

मैं वृक्ष वहीं था खड़ा रहा

ऋतुओं का प्रकोप झेला

जेठ की दुपहरिया झेली

तड़ित प्रहार ओला वृष्टि

चिरकाल से पीड़ा झेली

झेला मैंने घोर एकाकीपन

सहा कुठार का आघात

मूक-विवश मैं जन्मजात

ना रोक सका कोई त्रास

मुझे काटने में दिन सारा बिताया

खूब पसीना था उसे भी आया

टुकड़े गिरते देख रहा था अपने

विकल्प न था मैं भाग न पाया

फलों का मौसम आना था पर

वो नव पल्लव अब सिकुड़ गए

टूटी टहनियाँ और बिखरे पत्ते

रिस-रिस प्राण मेरे उजड़ गए

जिन पथिकों को छांव दिया

उन सबने मुझे मरोड़ा था

सड़कें चौड़ी करनी थी सो

मैं बीच रास्ते रोड़ा था

वहीं कहीं घोंसले अपने ढूंढने

शाम को चिड़ियां आयी थी

सौंप के गयी थी नन्हें बच्चे

पर देख दृश्य अकुलाई थी

अथक परिश्रम से उसने

तिनका-तिनका जोड़ा था

अपना छोटा-सा परिवार

उसने मेरे भरोसे छोड़ा था

भूखों को फल भी देता था

मैं ज़हर शहर का चखता था

हँसते-खेलते बच्चों को मैं

बस यूँ ही तकता रहता था

किसे सुनाऊँ मैं अपनी पीड़ा

क्या यह हत्या अपराध नहीं?

कोई लड़ने भी ना आया क्यूं

असहाय का वध पाप नहीं?

मानवों की इस धरती में

मुझ बेबस का ज़ोर कहाँ था?

सबको मैंने साँसे बाँटी पर

मेरी साँसों का मोल कहाँ था…

About the poet

Jaya Mishra is the second prize winner in the Regional Category of the Wingword Poetry Competition 2024 (summer cycle) for her poem ‘एक वृक्ष की आत्मकथा’, receiving a cash prize of INR 15,000.

She hails from Ranchi in Jharkhand and has a keen interest in writing, painting, sketching and calligraphy. Her works have been previously published in various newspapers and magazines.

She believes imagination is the first step to creation and thus people should allow themselves the free time without the use of devices so they can imagine and dream.