मन | Nivedita Ojha

खिड़की के खुलते ही, हवा के शीतल झोंके की तरह तुम ;

हौले से, मेरे पास आकर बैठ जाते हो ,

मैं भावों की बारिश में भीगती

अगली- पिछली यादों के कितने मोती आँखों से दुल्कातीं हूँ ,

जब तुम सूखी पाती को खोल-खोल ,

सुमधुर गान सुनाते हो.

और कभी तुम सतरंगे इन्द्रधनुष से ,

मदमस्त मुझे खींच कर ,

खुली घाटियों में खेत खलिहानों में ,

दौड़ते....

कभी झरने नदियों से गुज़रते...

खूब दौड़ाते हो ;

और मैं, सुध-बुध खोई सी भागती चली जाती हूँ.

कभी तुम रूठे बच्चे से 'अनमने,

न जाने कहाँ भटकते फिरते हो सारा दिन....

और कभी मौन क्षणों में, निर्विकार से,

मेरे संग किसी शून्य में समां जाते हो,

जहाँ न तुम ,न मैं ,न कोई एहसास ही होता है ...

ऐ मन ! तुम कितने रंग दिखाते हो ?