खिड़की के खुलते ही, हवा के शीतल झोंके की तरह तुम ;
हौले से, मेरे पास आकर बैठ जाते हो ,
मैं भावों की बारिश में भीगती
अगली- पिछली यादों के कितने मोती आँखों से दुल्कातीं हूँ ,
जब तुम सूखी पाती को खोल-खोल ,
सुमधुर गान सुनाते हो.
और कभी तुम सतरंगे इन्द्रधनुष से ,
मदमस्त मुझे खींच कर ,
खुली घाटियों में खेत खलिहानों में ,
दौड़ते....
कभी झरने नदियों से गुज़रते...
खूब दौड़ाते हो ;
और मैं, सुध-बुध खोई सी भागती चली जाती हूँ.
कभी तुम रूठे बच्चे से 'अनमने,
न जाने कहाँ भटकते फिरते हो सारा दिन....
और कभी मौन क्षणों में, निर्विकार से,
मेरे संग किसी शून्य में समां जाते हो,
जहाँ न तुम ,न मैं ,न कोई एहसास ही होता है ...
ऐ मन ! तुम कितने रंग दिखाते हो ?