इंसाफ़ जैसा शायद ही कोई और शब्द होगा
ऐसा लफ़्ज़ जो दावे बहुत करता है
मगर कुछ अमल करने के क़ाबिल ही नहीं
हज़ारों “हरिजन” की चीखें हैं
जो अपने होने का ग़म मना रही हैं
उनके हाथों की लकीरों में ही
गुनहगार खोज लिया समाज ने
रोज़ सौ सौ लड़कियाँ
इस देश के मर्दों से लड़ती हैं
कुछ ज़मीन के नीचे दफ़्न हैं
और कुछ उसके ऊपर
मोहब्बत पर शेर हर शाम सुनने वाले भी
दो लड़कों का प्यार क़ुबूल नहीं करते
हिंदू अगर मुसलमान को चुन ले
तो दोनो क़ौम लड़ मरते हैं
बच्चों को बाज़ार में खड़ा करके
एक दरिंदा भी अपना घर चला लेता है
सत्ता और पैसा सर पर जिसके सवार है
वो अपना ज़मीर बेच कर
ग़रीबों से दो वक्त की रोटी तक छीन लेता है
यूँ तो दास्तानें जुल्म भरी बहुत हैं
कितनी कहानियाँ सुन पाओगे?
किस किस का बोझ उठा पाओगे?
नाइंसाफ़ी के सिवा इस देश की सड़कों में दिखता ही क्या है? कौन सा ऐसा क़ानून है जो इंसाफ़ ला सका है?
जो कब्र में लिपटे मुर्दे को इंसान बना सका है
जो एक नारी को सम्मान के साथ सुकून दिला सका है
जो किसी बच्चे का बचपन उसे वापस दे सका है
असल इंसाफ़ तो वो है
जो हमें वहीं खड़ा करदे
जहां ये किससे हमारे ना थे
मगर इन चंद कहानियों में से
कौन ऐसा है जो अपनी सच्चाई बदल सके?
क्या क़र्ज़ है एक बेरहम की बेरहमी का जो वो खुद चुका सके?
क्या सज़ा है जो ज़िंदगी और मौत को तौल सके?
ये कहानियाँ हैं जुर्म की
इन लबों पर सिली हुई
ज़हन में बैठी हुई
यूँ हमारी रगों में सिमटी हुई
की इनका वजूद हम चाह कर भी मिटा ना सकें
एक बार जो कोई इनका हिस्सा बन जाए
उसके घाव पर क़ानून तो बस मरहम है
एक बार जो कोई ज़ुल्म सह ले
उसे हम तो क्या
ख़ुदा भी इंसाफ़ नहीं दिला सकता है